Thursday, April 7, 2011

To Anna With Love

To:All the citizen of India
For: Anna Hazare

कौन है ये जो जिद्द पे बैठा ,
आँधी जैसा लगता है ,
जागा हो फिर नींद से जैसे ,
गाँधी जैसा लगता है ॥


by DP

Friday, December 31, 2010

lalli ka letter -2010


सेवा में ,
वर्ष 2010,
सादर अभिनन्दन,
सविनय निवेदन है कि...जैसे पूरे वर्ष मुन्नी बदनाम होती रही और साल का अंत आते आते शीला जवान, ऐसी ही कृपा दृष्टि अगले वर्ष भी बनाये रखें|
राजा और राडिया कि महिमा व् गर्व गाथा ठीक इसी प्रकार हम सभी साल भर सुनते और जपते रहे जैसे कि सदियों से सत्यनाराण कि कथा सुनते आ रहे हैं |
भगवान NDTV को भी इतनी शक्ति कभी ना दे ,कि बरखा दीदी को पत्रकारिता और नैतिकता के ग्राउंड पे इस्तीफ़ा देना पड़े |
उम्मीद तो हमें बहुत है नए साल से ...वैसे भी प्याज महंगा ही तो हुआ है , विलुप्त नहीं |
आपकी कुशलता ही मेरी कुशलता का मूलाधार है |थोड़ा लिखा है ,ज्यादा समझना |
स्नेहाकांक्षी
आपकी लल्ली
© Copyright Rests With Creator. Divya Prakash Dubey



Tuesday, April 21, 2009

Kya likhun -क्या लिखूँ

मुझे इससे अच्छा Compliment आज तक नही मिला की "अरे वो आपकी कविता है मैंने इन्टरनेट पे बहुत जगह पढ़ी है "
पिछले साल एक ब्लॉग(नारी का कविता ब्लॉग ) पे ये चर्चा चली कि ये कविता "क्या लिखूं" का असली लेखक कौन है | मैं साधुवाद देता हूँ ऐसी कोशिश को की कम से कम किसी ने ये मुहिम शुरू कि इस कविता के असली लेखक का पता लगाया जाए |
उस दौरान मैं बहुत व्यस्त था इसीलिए मैंने सोचा था कभी तफसील से सबसे इस कविता के बारें मैं बात करूँगा और अपने हिस्से का सच सबके सामने लेके आऊंगा |
ऐसे ही एक दिन मैं ऑरकुट(Orkut) पे मैंने “कुछ जीत लिखू या हार लिखूँ “ ये search किया तो search result देख के मैं बहत खुश हुआ कि इतने ज्यदा लोगो ने इससे कॉपी कर रखा है अपने About me में डाल रखा है ...फ़िर मैंने यही Google पे Search किया तो देखा वहां भी यही हल है बहुत से लेगो ने इसे अपने ब्लॉग पे लगा रखा है बिना किसी भी लेखक का नाम लिखे हुए |
शुरू में मुझे लगा यार मेरी कविता इतने लोगो ने लगा रखी वो और किसी ने भी नाम नही लिखा मेरा ..लेकिन बाद में लगा की कविता तभी तक अपनी होती है जब आप उसे लिखते हैं फ़िर अगर कविता अच्छी हो तो सबकी हो जाती
मैं हर एक उस शख्स का शुक्रगुजार हूँ जिसने इससे कॉपी किया और इस कविता के ही अपने आप में इस कविता का सच और सफलता है| है |
बहुत दिनों से एक विडियो बनाना चाहता था किसी कविता पे फ़िर मैंने जानबूझ कर ये कविता चुनी ताकि थोड़ा बहुत शक अगर किसी के भी दिमाग में रह गया हो तो वो भी ख़तम हो जाए
यहाँ College(Symbiosis institute of Business management, Pune) में मुलाकात हुई समर्थ से जो की मेरे साथ ही MBA की पढ़ाई कर रहे हैं और थिएटर , एक्टिंग, एडिटिंग का बहुत शौकीन है और बहुत से Play में काम भी कर चुके हैं , और अभी थोड़े दिन ही पहले हम लोगो ने एक Play ,IIM Banglore मैं किया हो की हिन्दी play की category मैं first आया , जिसका निर्देशन समर्थ ने ही किया था| बस फ़िर क्या था हम लोगो ने MaterStroke नाम से २-३ विडियो बनाये और प्ले किए |
मैं वो सारे फोटो साथ मैं संलग्न कर रहा हूँ जिससे ये सिद्ध होता है कि ये कविता मैंने ही लिखी है और सबसे पहले में ही पोस्ट कि थी "हिन्दी कविता " नामक Google group में !!

ये कविता जीवन के बहुत सरे द्वंदों के बारे में है ,वो द्वंद जो जिंदगी को जिंदगी बनाती हैं | कहते हैं आप कविता नही लिखते कविता आपको लिखती है,जब उसको आना होता है तो वो ये नही देखती की आपके पास विषय है या नही ,वो तो बस आ जाती है | पता नही इस कविता ने मुझे और मैंने इस कविता को कितना लिखा है |मेरे लिए फर्क करना मुश्किल है

क्या लिखूँ
कुछ जीत लिखू या हार लिखूँ
या दिल का सारा प्यार लिखूँ
कुछ अपनो के जज़्बात लिखू या सपनो की सौगात लिखूँ
कुछ समझूँ या मैं समझाऊं या सुन के चलता ही जाऊँ
पतझड़ सावन बरसात लिखूं या ओस की बूँद की बात लिखूँ
मै खिलता सुरज आज लिखू या चेहरा चाँद गुलाब लिखूँ
वो डूबते सुरज को देखूँ या उगते फूल की साँस लिखूँ
वो पल मे बीते साल लिखू या सादियो लम्बी रात लिखूँ
मै तुमको अपने पास लिखू या दूरी का ऐहसास लिखूँ
मै अन्धे के दिन मै झाँकू या आँन्खो की मै रात लिखूँ
मीरा की पायल को सुन लुँ या गौतम की मुस्कान लिखूँ
बचपन मे बच्चौ से खेलूँ या जीवन की ढलती शाम लिखूँ
सागर सा गहरा हो जाॐ या अम्बर का विस्तार लिखूँ
वो पहली -पाहली प्यास लिखूँ या निश्छल पहला प्यार लिखूँ
सावन कि बारिश मेँ भीगूँ या आन्खो की बरसात लिखूँ
गीता का अॅजुन हो जाॐ या लकां रावन राम लिखूँ
मै हिन्दू मुस्लिम हो जाॐ या बेबस ईन्सान लिखूँ
मै एक ही मजहब को जी लुँ या मजहब की आन्खे चार लिखूँ
कुछ जीत लिखू या हार लिखूँ
या दिल का सारा प्यार लिखूँ

सादर
दिव्य प्रकाश दुबे
© Copyright Rests With Creator. Divya Prakash Dubey
Kya likhun at Nav Bharat Times

Wednesday, December 17, 2008

Spirit of SIBM

This song is dedicated to all who ever been part of Symbiosis institute of business Management,Pune
"the passion to live it up and the spirit to wear it on our sleeve"
Video of Spirit of SIBM by Jazba

Lyrics -
आंगन में पंछी आए ख्वाब सजाने को
आँखों में सपने लाये ,कुछ कर दिखाने को
कुछ सपने पीछे छूटे पलकों पे आंसू बनके
कुछ अपने पीछे छूटे पलकों पे आंसू बनके
कुछ ख्वाब झांकते हैं आँखों में मोती बनके
कुछ वादे अपनों के हैं ,कुछ वादे अपने से
कल दुनिया महकेगी फूल जो आज खिलने को हैं ....2
खिलने दो रंगों को फूलों को अपने संग
महकेगी दुनिया सारी ,बहकेगी अपने संग
ख्वाबों के परवाजो से आसमान झुकाने को है........2
आंगन में पंछी आए ख्वाब सजाने को
आँखों में सपने लाये ,कुछ कर दिखाने को
क़दमों की आहट अपनी दुनिया हिला देगी
यारों की यारी अपनी हर मुश्किल भुला देगी
दिव्य प्रकाश दुबे
Divya Prakash Dubey
SIBM Batch of 2007-09
dpd111@gmail.com© Copyright Rests With Creator. Divya Prakash Dubey

Monday, December 1, 2008

प्रसून जोशी की कविता "इस बार नही" !!!



प्रस्तुत है प्रसून जोशी(CEO, McCann Ericsson,Lyrics writer) की मुंबई बम धमाको को लेकर बुनी गई नई कविता , ये कविता हमारे दर्द को तो बयां करती ही है और साथ ही सरकार पे और हम पे चोट करती है कि अब कुछ कड़े फैसले लेने का वक्त आ गया है .....


इस बार नहीं

इस बार जब वो छोटी सी बच्ची मेरे पास अपनी खरोंच ले कर आएगी
मैं उसे फू फू कर नहीं बहलाऊँगा
पनपने दूँगा उसकी टीस को
इस बार नहीं

इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखा देखूँगा
नहीं गाऊंगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूँगा ,उतरने दूँगा अन्दर गहरे
इस बार नहीं

इस बार मैं न मरहम लगाऊँगा
न ही उठाऊँगा रुई के फाहे
और न ही कहूँगा की तुम आँखें बंद करलो ,गर्दन उधर कर लो मैं दावा लगता हूँ
देखने दूँगा सबको हम सबको खुले नंगे घाव
इस बार नहीं

इस बार जब उलझने देखूँगा ,छटपटाहट देखूँगा
नहीं दौडूंगा उलझी ड़ोर लपेटने
उलझने दूँगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं

इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊँगा औजार
नहीं करूंगा फिर से एक नयी शुरुआत
नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूँगा ज़िन्दगी को आसानी से पटरी पर
उतारने दूँगा उसे कीचड मैं ,टेढे मेढे रास्तों पे
नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूँगा उसे इतना लाचार
कि पान की पीक और खून का फर्क ही ख़त्म हो जाए
इस बार नहीं

इस बार घावों को देखना है
गौर से
थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फैसले
और उसके बाद हौसले
कहीं तोह शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है

... प्रसून जोशी
Courtesy – http://www.rediff.com/news/2008/dec/01mumterror-is-baar-nahin.htm

Posted by -Divya Prakash Dubey
dpd111@gmail.com

Sunday, September 7, 2008

bakar kya hai?

पिछली बार कई टिप्पणियां पढ़के लगा जैसे हमने एक सोच को जन्म तो दिया है पर वो सोच तब तक एक ज्वलंत विचारधारा का रूप नहीं ले सकती जब तक की हम ये साफ़ न कर दें की आख़िर बकर है क्या. तो इसी विषय में आज कुछ प्रकाश डालने की चेष्टा कर रहा हूँ.ज्यादातर लोग बकर को टाइम पास का एक साधन मात्र समझते हैं पर ये पूर्णतया सच नहीं है. हाँ बकर से टाइम पास होता है पर सिर्फ़ टाइम पास ही इसका उद्देश्य नहीं. बकर एक सोच है, एक विचारधारा जिसका जन्म तो न जाने कब ही हो गया था. आज तो हमने बस इसे एक ढांचा और नाम देने की कोशिश की है. बकर एक ऐसा शंख-रुपी सिद्धांत है जिसके जितना अन्दर जाते रहेंगे उतना ही रहस्य और पेचीदा पर सुखदायी होता रहेगा. अंग्रेज़ी में अगर कहें तो बकर एक 'स्कूल ऑफ़ थॉट' है. आपने कॉलेज के छात्रों को निहायत ही फालतू बातों पर बात करते देखा होगा जैसे 'क्लास के प्रोफ़ेसर का पाजामा', 'हम तुम और रम', 'पास वाली आंटी की भौहें' आदि. ये बकर है. ये बातें भले ही पहली नज़र में फालतू लगी हों पर ये सोचिये की ऐसे दुर्लभ विषयों पर चर्चा करना क्या हर किसी के बस की बात है? चर्चा तो छोडिये क्या ऐसे विषयों को सोच भी पाना हर आदमी के बस में है? बकर फालतू नहीं. बकर वो मंच है जहाँ दुनिया भर के लोग अपने आप से रु-ब-रु होते हैं. अपने अन्दर के उस कलाकार को पहचानते हैं जो दैनिक जीवन की उलझनों में शर्मा के बैठा है. बकर रोज़मरा के जीवन के उन नायकों की गाथा बयान करती है जो ना तो जीना छोड़ते हैं और ना ही जनता के बीच बैठ कर उपयुक्त मौका न मिल पाने का रोना रोते हैं. ध्यान रहे की बकर कोई विधि या तकनीक नहीं है. बकर एक बहाव है जो दो आदमियों के अंतर्मन को परस्पर लाने की क्षमता रखता है. आज बकर के प्रभाव में रहने से कितने ही लोग अपने जीवन को एक नई रौशनी में देख पा रहे हैं. वे लोग जो अपने 'बौस' से परेशान हैं, जिन्हें किसी वजह से रात में नींद नहीं आती, जो अपनी बीवी के सामने अपने शब्द नहीं रख पाते, जो कविता रचते हैं पर किसी को सुना नहीं पाते. फिर भी ये लोग जब शाम को जब टहलने निकलते हैं तो किसी नुक्कड़ या दूकान पे मिल जाते हैं. ध्यान से सुनियेगा तो आप जान पायेंगे की इनकी बातों के विषय कितने अछूते हैं, कितने मार्मिक और फिर भी कितने हास्य हैं. ये बकर है.

'बकर क्या है जानने के लिए,

बकर कर पाना बहुत ज़रूरी है

आज तक किसी ने की तो नहीं'

(गुलज़ार की एक त्रिवेणी से प्रेरित)

अब तक प्रयत्नरत

आभार

Sunday, August 17, 2008

कान की खुजली से मोक्ष तक !!


कान में खुजली एक ऐसी घटना है जो कभी भी किसी के साथ भी घट सकती है | ये भीड़ देखकर नही रूकती ,कभी भी अकेले में या क्लास रूम में ,या पिक्चर हाल में ,ट्रेन में ,ऑफिस में "कहीं भी कभी भी " इसके दौरे पड़ सकते हैं | इसे घबराने की जरुरत नही नही बिल्कुल भी परेशानी वाली बात नही | जब भी घुजली हो तो ये आपके लिए एक सुनहरा मौका है मोक्ष तक की यात्रा कर आने का खर्चा कुछ नही है कहीं तीरथ यात्रा पे भी नही जाना | बस करना ये की आस पास कोई पेंसिल,पेन की रिफिल ,जली हुई अगरबती का बचा हुया हिस्सा ,माचिस की तीली इनमे से किस्सी को भी ढूंढ़ लें और धीरे से अपने कान के पास ले जायें बिल्कुल आराम से क्यों की आगे की डगर इतनी आसान नही है भी है
"ये सफर नही है आसां बस इतना समझ लीजे ,
एक माचिस की तीली है और बहुत दूर तक जाना है "
अब आप आगे की यात्रा के लिए जरुरी सामान रख चुके है तो बस देर किस बात की है यात्रा शुरू करते है आइये लोगो से जानते हैं उनकी इस बारे मैं क्या राय है ...
मृत्युंजय तिवारी जो मूलतः पूर्वांचल के रहने वाले हैं लेकिन आज कल पढ़ाई के लिए पुणे मैं हैं कहते हैं " हमने मोक्ष तो नही देखा लेकिन मोक्ष को महसूस किया है ये भावना तब अपनी प्रचंडता पे होती है जब क्लास मैं बैठे हुए पूरे मन से कुछ समझने की कोशिश कर रहे होते हैं लेकिन तभी खुजली का मदमस्त झोका आता है और कानो के साथ हमारे दिलो दिमाग को मदमस्त कर जाता है जब हमारी जेब से निकलती है मोक्षदायनी एक रिफिल Cello Gripper की,कान के पास हौले से ले जाके घुमाइए और जब लगे की मोक्ष दूर नही है तो पूरी तेरह से कोंच दीजिये !!"
पुनीत जो की पेशे से मेनेजर हैं पुणे में स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत हैं कहते हैं " ये बहुत आशावान है इस तरह की सार्थक और दिलो दिमाग को छु लेने वाली चर्चा अब इन्टरनेट पे आरंभ हो चुकी है "अब चलते कुछ अगल विचारधारा के पुरोधा के पास चलते हैं नाम है मोहित सिंह जो की पेशे से DCE इंजिनियर ,और ६ सल् अपनी सेवायिएँ एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को अपनी को देके आज कल पुणे स्थित एक प्रबंधन संसथान मैं अध्यनरत हैं ,कहते हैं “हम लोग अपने जीवन के छोटे छोटे क्षणों में जीना भूल गए हैं,मुझे पूरा विश्वास है की मोक्ष के लिए वर्षो तपस्या करने की कोई आवश्यकता नही है ,मोक्ष को हम इन छोटे छोटे क्षणों में पा सकते हैं जैसे की कान मैं खुजली करना "
मुझे लगता है की इस विषय पे एक राष्टीय स्तर पे बहस की आवश्यता है ,शायद ये वो सच है जिससे हमारी पीढियां बरसों वंचित रही हैं |
आपकी मोक्ष यात्राओं का विवरण जाने की प्रतीक्षा में ...
सदर
दिव्य प्रकाश दुबे