Wednesday, December 17, 2008
Spirit of SIBM
"the passion to live it up and the spirit to wear it on our sleeve"
Video of Spirit of SIBM by Jazba
Lyrics -
आंगन में पंछी आए ख्वाब सजाने को
आँखों में सपने लाये ,कुछ कर दिखाने को
कुछ सपने पीछे छूटे पलकों पे आंसू बनके
कुछ अपने पीछे छूटे पलकों पे आंसू बनके
कुछ ख्वाब झांकते हैं आँखों में मोती बनके
कुछ वादे अपनों के हैं ,कुछ वादे अपने से
कल दुनिया महकेगी फूल जो आज खिलने को हैं ....2
खिलने दो रंगों को फूलों को अपने संग
महकेगी दुनिया सारी ,बहकेगी अपने संग
ख्वाबों के परवाजो से आसमान झुकाने को है........2
आंगन में पंछी आए ख्वाब सजाने को
आँखों में सपने लाये ,कुछ कर दिखाने को
क़दमों की आहट अपनी दुनिया हिला देगी
यारों की यारी अपनी हर मुश्किल भुला देगी
दिव्य प्रकाश दुबे
Divya Prakash Dubey
SIBM Batch of 2007-09
dpd111@gmail.com© Copyright Rests With Creator. Divya Prakash Dubey
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Monday, December 1, 2008
प्रसून जोशी की कविता "इस बार नही" !!!
प्रस्तुत है प्रसून जोशी(CEO, McCann Ericsson,Lyrics writer) की मुंबई बम धमाको को लेकर बुनी गई नई कविता , ये कविता हमारे दर्द को तो बयां करती ही है और साथ ही सरकार पे और हम पे चोट करती है कि अब कुछ कड़े फैसले लेने का वक्त आ गया है .....
इस बार नहीं
इस बार जब वो छोटी सी बच्ची मेरे पास अपनी खरोंच ले कर आएगी
मैं उसे फू फू कर नहीं बहलाऊँगा
पनपने दूँगा उसकी टीस को
इस बार नहीं
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखा देखूँगा
नहीं गाऊंगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूँगा ,उतरने दूँगा अन्दर गहरे
इस बार नहीं
इस बार मैं न मरहम लगाऊँगा
न ही उठाऊँगा रुई के फाहे
और न ही कहूँगा की तुम आँखें बंद करलो ,गर्दन उधर कर लो मैं दावा लगता हूँ
देखने दूँगा सबको हम सबको खुले नंगे घाव
इस बार नहीं
इस बार जब उलझने देखूँगा ,छटपटाहट देखूँगा
नहीं दौडूंगा उलझी ड़ोर लपेटने
उलझने दूँगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं
इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊँगा औजार
नहीं करूंगा फिर से एक नयी शुरुआत
नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूँगा ज़िन्दगी को आसानी से पटरी पर
उतारने दूँगा उसे कीचड मैं ,टेढे मेढे रास्तों पे
नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूँगा उसे इतना लाचार
कि पान की पीक और खून का फर्क ही ख़त्म हो जाए
इस बार नहीं
इस बार घावों को देखना है
गौर से
थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फैसले
और उसके बाद हौसले
कहीं तोह शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है
... प्रसून जोशी
Courtesy – http://www.rediff.com/news/2008/dec/01mumterror-is-baar-nahin.htm
Posted by -Divya Prakash Dubey
dpd111@gmail.com
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Sunday, September 7, 2008
bakar kya hai?
पिछली बार कई टिप्पणियां पढ़के लगा जैसे हमने एक सोच को जन्म तो दिया है पर वो सोच तब तक एक ज्वलंत विचारधारा का रूप नहीं ले सकती जब तक की हम ये साफ़ न कर दें की आख़िर बकर है क्या. तो इसी विषय में आज कुछ प्रकाश डालने की चेष्टा कर रहा हूँ.ज्यादातर लोग बकर को टाइम पास का एक साधन मात्र समझते हैं पर ये पूर्णतया सच नहीं है. हाँ बकर से टाइम पास होता है पर सिर्फ़ टाइम पास ही इसका उद्देश्य नहीं. बकर एक सोच है, एक विचारधारा जिसका जन्म तो न जाने कब ही हो गया था. आज तो हमने बस इसे एक ढांचा और नाम देने की कोशिश की है. बकर एक ऐसा शंख-रुपी सिद्धांत है जिसके जितना अन्दर जाते रहेंगे उतना ही रहस्य और पेचीदा पर सुखदायी होता रहेगा. अंग्रेज़ी में अगर कहें तो बकर एक 'स्कूल ऑफ़ थॉट' है. आपने कॉलेज के छात्रों को निहायत ही फालतू बातों पर बात करते देखा होगा जैसे 'क्लास के प्रोफ़ेसर का पाजामा', 'हम तुम और रम', 'पास वाली आंटी की भौहें' आदि. ये बकर है. ये बातें भले ही पहली नज़र में फालतू लगी हों पर ये सोचिये की ऐसे दुर्लभ विषयों पर चर्चा करना क्या हर किसी के बस की बात है? चर्चा तो छोडिये क्या ऐसे विषयों को सोच भी पाना हर आदमी के बस में है? बकर फालतू नहीं. बकर वो मंच है जहाँ दुनिया भर के लोग अपने आप से रु-ब-रु होते हैं. अपने अन्दर के उस कलाकार को पहचानते हैं जो दैनिक जीवन की उलझनों में शर्मा के बैठा है. बकर रोज़मरा के जीवन के उन नायकों की गाथा बयान करती है जो ना तो जीना छोड़ते हैं और ना ही जनता के बीच बैठ कर उपयुक्त मौका न मिल पाने का रोना रोते हैं. ध्यान रहे की बकर कोई विधि या तकनीक नहीं है. बकर एक बहाव है जो दो आदमियों के अंतर्मन को परस्पर लाने की क्षमता रखता है. आज बकर के प्रभाव में रहने से कितने ही लोग अपने जीवन को एक नई रौशनी में देख पा रहे हैं. वे लोग जो अपने 'बौस' से परेशान हैं, जिन्हें किसी वजह से रात में नींद नहीं आती, जो अपनी बीवी के सामने अपने शब्द नहीं रख पाते, जो कविता रचते हैं पर किसी को सुना नहीं पाते. फिर भी ये लोग जब शाम को जब टहलने निकलते हैं तो किसी नुक्कड़ या दूकान पे मिल जाते हैं. ध्यान से सुनियेगा तो आप जान पायेंगे की इनकी बातों के विषय कितने अछूते हैं, कितने मार्मिक और फिर भी कितने हास्य हैं. ये बकर है.
'बकर क्या है जानने के लिए,
बकर कर पाना बहुत ज़रूरी है
आज तक किसी ने की तो नहीं'
(गुलज़ार की एक त्रिवेणी से प्रेरित)
अब तक प्रयत्नरत
आभार
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Sunday, August 17, 2008
कान की खुजली से मोक्ष तक !!
कान में खुजली एक ऐसी घटना है जो कभी भी किसी के साथ भी घट सकती है | ये भीड़ देखकर नही रूकती ,कभी भी अकेले में या क्लास रूम में ,या पिक्चर हाल में ,ट्रेन में ,ऑफिस में "कहीं भी कभी भी " इसके दौरे पड़ सकते हैं | इसे घबराने की जरुरत नही नही बिल्कुल भी परेशानी वाली बात नही | जब भी घुजली हो तो ये आपके लिए एक सुनहरा मौका है मोक्ष तक की यात्रा कर आने का खर्चा कुछ नही है कहीं तीरथ यात्रा पे भी नही जाना | बस करना ये की आस पास कोई पेंसिल,पेन की रिफिल ,जली हुई अगरबती का बचा हुया हिस्सा ,माचिस की तीली इनमे से किस्सी को भी ढूंढ़ लें और धीरे से अपने कान के पास ले जायें बिल्कुल आराम से क्यों की आगे की डगर इतनी आसान नही है भी है
"ये सफर नही है आसां बस इतना समझ लीजे ,
एक माचिस की तीली है और बहुत दूर तक जाना है "अब आप आगे की यात्रा के लिए जरुरी सामान रख चुके है तो बस देर किस बात की है यात्रा शुरू करते है आइये लोगो से जानते हैं उनकी इस बारे मैं क्या राय है ...
मृत्युंजय तिवारी जो मूलतः पूर्वांचल के रहने वाले हैं लेकिन आज कल पढ़ाई के लिए पुणे मैं हैं कहते हैं " हमने मोक्ष तो नही देखा लेकिन मोक्ष को महसूस किया है ये भावना तब अपनी प्रचंडता पे होती है जब क्लास मैं बैठे हुए पूरे मन से कुछ समझने की कोशिश कर रहे होते हैं लेकिन तभी खुजली का मदमस्त झोका आता है और कानो के साथ हमारे दिलो दिमाग को मदमस्त कर जाता है जब हमारी जेब से निकलती है मोक्षदायनी एक रिफिल Cello Gripper की,कान के पास हौले से ले जाके घुमाइए और जब लगे की मोक्ष दूर नही है तो पूरी तेरह से कोंच दीजिये !!"
पुनीत जो की पेशे से मेनेजर हैं पुणे में स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत हैं कहते हैं " ये बहुत आशावान है इस तरह की सार्थक और दिलो दिमाग को छु लेने वाली चर्चा अब इन्टरनेट पे आरंभ हो चुकी है "अब चलते कुछ अगल विचारधारा के पुरोधा के पास चलते हैं नाम है मोहित सिंह जो की पेशे से DCE इंजिनियर ,और ६ सल् अपनी सेवायिएँ एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को अपनी को देके आज कल पुणे स्थित एक प्रबंधन संसथान मैं अध्यनरत हैं ,कहते हैं “हम लोग अपने जीवन के छोटे छोटे क्षणों में जीना भूल गए हैं,मुझे पूरा विश्वास है की मोक्ष के लिए वर्षो तपस्या करने की कोई आवश्यकता नही है ,मोक्ष को हम इन छोटे छोटे क्षणों में पा सकते हैं जैसे की कान मैं खुजली करना "
मुझे लगता है की इस विषय पे एक राष्टीय स्तर पे बहस की आवश्यता है ,शायद ये वो सच है जिससे हमारी पीढियां बरसों वंचित रही हैं |
आपकी मोक्ष यात्राओं का विवरण जाने की प्रतीक्षा में ...
सदर
दिव्य प्रकाश दुबे